खुली बिक्री से धूम्रपान का नाता?

इमरान क़ुरैशी: बीबीसी : 

सिगरेट की खुली बिक्री पर रोक और सिगरेट ख़रीद के लिए न्यूनतम उम्र बढ़ाने के प्रस्ताव को जानकार युवाओं को नशे की लत से बचाने की दिशा में अहम क़दम के रूप में देख रहे हैं.

मगर क़ानून के जानकारों के बीच इसकी वैधानिकता को लेकर बहस छिड़ गई है.

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज़, बंगलुरु के नशा-मुक्ति केंद्र के प्रमुख डॉक्टर विवेक बेनेगल ने बीबीसी हिंदी से कहा, "ऐसे कई वैज्ञानिक साक्ष्य हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है सिगरेट की खुली बिक्री पर रोक लगाने से धूम्रपान में कमी आती है, ख़ासकर युवाओं के बीच. हालांकि जो लोग पहले से सिगरेट पीने के आदी हैं, उनपर इसका असर शायद ही हो.

सरकार सिगरेट ख़रीदने की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष को बढ़ाकर 25 वर्ष करना चाहती है.

इस पर डॉ. बेनेगल कहते हैं, "अगर कोई 25 साल की उम्र के बाद सिगरेट पीना शुरू करता है तो उसके इसके आदी बनने की संभावना कम होती है."

इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक हेल्थ के एडवोकेसी ऑफ़िसर डॉक्टर प्रगति हेब्बार कहती हैं, "हमारे अध्ययन से साफ़ हुआ है कि सिगरेट पीने की शुरुआत करने की उम्र अब 18 वर्ष से घटकर 15 वर्ष हो गई है और ऐसे लोग अक्सर फुटकर तौर पर ही सिगरेट ख़रीदते हैं क्योंकि इस उम्र में पूरा डिब्बा ख़रीदना उनके लिए संभव नहीं होता."

लेखक रुचिर जोशी को इस नए प्रस्ताव पर काफ़ी आपत्ति है. वह कहते हैं, "मुझे ज़्यादा चिंता सिगरेट ख़रीदने की न्यूनतम उम्र 25 वर्ष करने के प्रस्ताव की है. यह सचमुच आपत्तिजनक है. यह एक हास्यास्पद विचार है."

वह कहते हैं, "विदेशों में धूम्रपान के लिए अलग स्थान बनाए जाते हैं. जिस तरह के शुल्क की बात की जा रही है उससे पुलिसवालों के लिए घूसखोरी का नया कारोबार शुरू हो जाएगा."

सवाल यह भी है कि अगर सरकार ऐसा कोई फ़ैसला लेती है तो क्या उसे अदालत में चुनौती दी जा सकेगी?

वरिष्ठ अधिवक्ता आदित्य सोढ़ी कहते हैं, "धूम्रपान के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं कहा जा सकता. अदालत पहले ही कह चुकी है कि शराब पीने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है."

वह कहते हैं, "अगर सरकार यह दिखाने में कामयाब होती है कि सिगरेट की खुली बिक्री से सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान को बढ़ावा मिलता है, तो वह ऐसे नियम बना सकती है. लेकिन इस पर सवाल उठाया जा सकता है कि सरकार के पास ऐसा करने का अधिकार और तर्क है या नहीं."

एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े कहते हैं, "ज़मीनी तौर पर ऐसा कोई फ़ैसला ग़रीब तबक़े के ख़िलाफ़ होगा क्योंकि वो पूरा डिब्बा नहीं ख़रीद सकते. मगर किसी क़ानून की वैधता इससे तय होती है कि वह संवैधानिक है या असंवैधानिक. हालांकि किसी भी ऐसे पदार्थ जिसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है तो उसकी ख़रीद-बिक्री पर रोक लगाने को उच्चतम न्यायालय ने 1950 में ही सही ठहरा दिया था."



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